काश! कभी अपनी गलतियों से हम कुछ सीख भी पाते!!
विचार धरती पर बल और अशक्ति के बीच के संबंध को गहरे तरीके से छूने वाला है। आपने बताया कि ज्यादातर जीव, जिनमें बल होता है, उनका व्यवहार उनकी जरूरतों और भूख के आधार पर होता है। वे अपने बल का उपयोग करके अपनी जरूरतों को पूरा करते हैं।लेकिन मनुष्य का मामला थोड़ा अलग है। मनुष्य में विवेकशीलता होती है, जिसके कारण उसे जानवरों से अलग माना जाता है। लेकिन जब मनुष्य विवेकशीलता को नजरअंदाज़ करता है
धरती का एक नियम है कि यहां बलशाली निर्बल को खा जाता है या उसका शोषण करता है या उस पर हावी रहता है !!
मतलब जिस किसी जीव के पास जिस किसी भी मात्रा में बल है ,वह उससे कम बल वाले जीव के साथ उपरोक्त व्यवहार ही करेगा । लेकिन यहां पर एक दूसरी बात ध्यान रखने योग्य है कि अन्य जीवो के मामले में यह बात उनकी क्षुधा-पूर्ति की अनिवार्यता पर आधारित होती है । यानी जितना वह भूखे होते हैं, उस मात्रा के अनुसार वे अपने भक्ष्य पदार्थों या जीवों या साधनों पर आधिपत्य जमाते हैं ,और वो भी अपने बल के द्वारा !!
मनुष्य के साथ यह नियम इस अर्थ में लागू होता ही नहीं ,लेकिन मनुष्य भी अपने भीतर के पशु-प्रभाव के हावी होने के कारण कभी-कभी वही कार्य करता है, जो पशु-समान होता है,तब उसकी तुलना पशु की तरह की जाती है ! किन्तु मनुष्य में विवेकशीलता के भाव के कारण उसे पशु से अलग समझा जाता है ,बावजूद इसके वह जब विवेकशीलता से हीन व्यवहार करता है ,या भाव जताता है, तो फिर वह उस वक्त मनुष्यता की श्रेणी से च्युत हो जाता है !!
तो आदमी की इन्हीं कुछ प्रवृत्तियों के कारण आदमी हर युग में कुछ ऐसी भयंकर गलतियां करता रहा है ,जिससे ऐसा लगता है कि उसका इतिहास ही विगलित हो गया है । लेकिन मुश्किल यह है कि इस बात का भी भान आदमी को कभी नहीं रहता कि वह क्या गलतियां कर रहा है और उसका परिणाम क्या होने को है !!
यहां तक कि घटनाओं के घट जाने के बाद उनके परिणाम प्राप्त हो जाने के बाद भी उसमें यह सोच कभी विकसित नहीं होती कि उसे आगे क्या करना चाहिए !! तो इस नाते हमारे धर्म-ग्रंथ भी इन चीजों से अछूते नहीं हैं और हमारा तमाम इतिहास भी हमारी सभी गलतियों की तस्दीक करता है !! बावजूद इसके क्या हम यह नहीं देखते कि हम अपने इतिहास से कभी कोई सबक नहीं लेते और बार-बार वही-वही गलतियां करते ही चले जाते हैं ,जो पीछे भी बार-बार की जा चुकीं हैं !!
तो जिस प्रकार हम अपने ही इन महान ग्रंथों का इतिहास पढ़ते हुए यह पाते हैं कि हमारे महानतम पूर्वज भी वही सब गलतियां कर चुके हैं और फिर भी हम जहां रहते हैं ,उस घर में ,उस गांव में ,उस शहर में , उसे पड़ोस में ,उस मोहल्ले में ,उस देश में वही-वही सब गलतियां तो करते हैं !! यह ठीक है कि हमारा इतिहास नहीं बनता और हम इतिहास के हिस्से सिर्फ इतिहास की संख्याओं के आंकड़ों भर के रूप में है !! लेकिन फिर भी यह बात तो सच है ही कि हम भी वही सब गलतियां करते चले आते हैं ,जो हमारे ऐतिहासिक मनुष्यों ने की है !!
तो यह एक मानव-जनित प्रवृत्ति है और शायद इस प्रवृत्ति को कोई खत्म नहीं कर सकता और शायद यह ईश्वर द्वारा हमें हमारे दुर्भाग्य या शाप के रूप में प्रदान की गई है !!
~राजीव थेपड़ा
Rajeev Thepra Verma
7004782990
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