प्रेम और सम्मान की भूखी इस दुनिया में.......!!
इस लेख मेंआपको पढ़ने को मिलेगा की मानवता की अदृश्य भूख को चर्चा में लाया गया है, जिसमें प्रेम और सम्मान की महत्वपूर्ण भूमिका को उजागर किया गया है। यह बताया गया है कि कैसे सम्मान और प्रेम की खोज में मानव अकेला नहीं है, और इसका सही अर्थ क्या है।
हर एक प्राणी अपने पैदा होते ही अपनी पहली सांस के साथ प्रेम के लिए व्यग्र होता है, तो उसका पहला प्रेम वह होता है, जो उसे दूध पिलाता है और जब उसकी दूध पीने की उम्र समाप्त हो जाती है और वह थोड़ा समझने-बूझने लगता है, तो उसके पश्चात उसकी अगली भूख सम्मान की होती है। एक छोटा-सा बच्चा भी अपने लिए प्रेम और सम्मान पाने का भाव रखता है! यह भाव हर एक को प्रकृति प्रदत है और जब तक दुनिया का प्रत्येक व्यक्ति यह समझ पाने में समर्थ नहीं होता, कि सम्मान और प्रेम केवल लेने का नाम नहीं है, बल्कि उससे पूर्व अपने द्वारा दिए किसी और को, याकि सबको दिए जाने का नाम है। यह अधिकार से ज्यादा कर्तव्य है। यह एक ऐसी म्युचुअल अंडरस्टैंडिंग है कि आप किसी को देते हो, तो आपको अपने-आप ही उससे कहीं बहुत अधिक मात्रा में मिलने लगता है और जहां आप कंजूस होते हो, तो उसका परिणाम भी तदनुरूप हुआ करता है। हर एक का सम्मान एक्चुअली अपना ही सम्मान होता है। आप स्वयं सोच कर देखिए ना, यदि मैं आपका सम्मान करता हूं, तो आपके मन में मेरे लिए सम्मान जगता है। यदि आप किसी और का सम्मान करते हो, तो उसके मन में आपके लिए सम्मान जगता है।
सच कहूं तो यह दुनिया सम्मान और प्यार की ही भूखी है। लेकिन यहां पर बस एक ही कठिनाई आती है कि उसे लगता है कि उसे वह सम्मान और प्यार पाने के लिए अलग से कुछ खास जतन करना पड़ेगा, कुछ ऐसा करना पड़ेगा, जिससे कि उसे वह सम्मान और प्यार मिले और इसके लिए वह कुछ ऐसे ऐसे करतब भी करती है, जो कभी-कभी तो अजीबोगरीब भी हो जाते हैं!
तो सम्मान और प्यार की भूखी है दुनिया अपने ईगो को तुष्ट करने के लिए कभी-कभी इतनी ज्यादा ही इगोईस्टक हो जाती है, इतनी ज्यादा आत्मकेंद्रित हो जाती है कि उसे पता ही नहीं चलता कि कब उसके प्यार और सम्मान की भूख खो गई और इसके बदले उसके भीतर एक बेचैन, एक ऐसा लालची प्राणी जाग उठा है, जो पूर्णतया स्वार्थी है!!
इस प्रकार सम्मान की यह भूख व्यक्ति को अंततः स्वार्थी बना डालती हैं, व्यक्ति सोचता है कि वह जो कुछ कर रहा है, उससे उसको विशेष सम्मान और प्यार मिलेगा। लेकिन सच तो यह भी है कि स्वार्थी लोगों को सम्मान और प्यार नहीं मिलता, अलबत्ता उसके सामने उसका दिखावा अवश्य किया जा सकता है।
तो सम्मान सिर्फ और सिर्फ आपके अपने निष्कपट भाव से दूसरे के मन में पैदा होता है, लेकिन इतनी मामूली-सी बात को भी तो दुनिया नहीं समझती, हम नहीं समझते! फिर से कहूं, तो इस बात का दोहराव ही होगा कि प्रेम और सम्मान के भूखे और प्यासे हम सब लोग प्रेम और सम्मान पाने के लिए जो छोटी-से-छोटी बातें करनी चाहिए, जो मामूली-से- मामूली प्रयास करने चाहिए, उन मामूली प्रयासों को अनदेखा करते हुए हम कुछ खास करने को उद्धृत होते रहते हैं और इस प्रकार बजाय दुनिया के पास आने के, उस दुनिया से दूर होते चले जाते हैं, जिससे हम सम्मान और प्यार पाना चाहते हैं!
और यह अजीबोगरीब संकट हर जगह फैला हुआ है, चाहे भारत हो, चाहे सुदूर पश्चिम हो! मानवीय स्वभाव अजीबोगरीब जटिलताओं से भरा पड़ा है। हम सबको साथ जीने के लिए महज मामूली-मामूली-सी चीजें भर ही करनी होती हैं, लेकिन हम कुछ खास होने के लिए कुछ अन्य प्रयास करने को पगलाए रहते हैं और नतीजा यह कि हम खास तो अवश्य बन जाते हैं, लेकिन फिर हम जैसे उन खास तमाम लोगों की दृष्टि में यह दुनिया तृण-मात्र होती चली जाती है, क्योंकि खास लोगों को बाकी सब बेखास दिखाई देने लगते हैं और सम्मान तो बराबरी के स्तर की चीज होती है! है ना?
तो यदि मैं किसी रिक्शे वाले से भी सम्मान चाहता हूं, तो मुझे उसका उसी प्रकार सम्मान करना पड़ेगा, जैसे मैं उससे अपना सम्मान चाहता हूं। तो क्या प्रैक्टिकल दुनिया में यह होता है? शायद नहीं! शायद कभी नहीं! और शायद कुछ द्वारा लोगों द्वारा होता भी होगा, लेकिन प्राय:-प्राय: वह भी पर्याप्त नहीं होता!
तो काश कि हम लोग एक दूसरे के हित के बारे में सोच पाएं, हम में से कोई व्यक्ति किस प्रकार आगे बढ़े, उसकी सहायता के लिए सोच पाएं, अपने घर में रह रहे लोगों के हित के बारे में सोच पाएं, अपने दोस्तों, अपने आस-पड़ोस के लोगों के हित के बारे में सोच पाएं, तो ऐसा बिल्कुल नहीं होगा कि सिर्फ वही बढ़ेगा, बल्कि वह बढ़ेगा, तो हम भी तो बढ़ेंगे।
किसी भी समाज में सिर्फ कोई एक अकेला आगे भर नहीं बढ़ता, बल्कि वह अपने साथ बहुत सारे लोगों को आगे बढ़ाता है। इस प्रकार किसी एक के बढ़ने से पूरा समाज लाभान्वित होता है, पूरा समाज ही आगे बढ़ता है, तो जिस प्रकार हम बिल्कुल अपने लोगों को बढ़ाते हैं, उसी प्रकार यदि अन्य लोगों को भी बढ़ाना शुरू कर दें, तो दुनिया का स्वरूप बिल्कुल परिवर्तित हो सकता है। यहां इससे भी बढ़कर में एक और बात जोड़ना चाहूंगा कि जिन लोगों को मैंने अन्य की संज्ञा दी है, उन्हें भी अन्य माना ही क्यों जाए? वह अन्य अपने हमारे अपने क्यों नहीं हों? क्या उनमें कोई और चेतना बहती है? क्या हममें कोई और चेतना बहती है? तो यदि हम सब में एक ही चेतना बहती है, तो एक ही चेतना के उस अविभाज्य अंशों के रूप में हम सब मिलजुल कर क्यों नहीं साथ चलते? यह मानवता के लिए एक बहुत बड़ी चिंता का विषय बना रहा है और शायद आगे भी बना रहेगा।
राजीव थेपड़ा
रांची, झारखंड
70047-82990
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