हिन्दी हैं हम, वतन है हिंदोस्ता हमारा

हिन्दी हैं हम, वतन है हिंदोस्ता हमारा

Oct 7, 2023 - 00:43
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हिन्दी हैं हम, वतन है हिंदोस्ता हमारा
हिन्दी हैं हम, वतन है हिंदोस्ता हमारा

इस धरा पर मनुष्य के आगमन के पश्चात बहुतों कालांतर में अलग-अलग भूभाग के मनुष्यों में अलग-अलग भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार भांति-भांति प्रकार की बोलियों ने जन्म लिया तदनंतर भाषाएं आईं। योग्यताएं इस प्रकार पृथ्वी के विभिन्न भागों में न जाने कितनी ही तरह की भाषाओं बोलियों इत्यादि का प्रादुर्भाव एवं तदनंतर प्रसार हुआ और यह क्रम अब तक भी इसी भांति चला आ रहा है। देखा जाए तो हर भाषा हर बोली के साथ उसका एक परिवेश है। उसका एक संस्कार है। उसकी एक सभ्यता है और उन्हीं के मध्य वह समयानुसार आवश्यकतानुसार बदलती और परिष्कृत होती रही हैं।
               किसी भाषा और बोली को वहां की भौगोलिकता और भावना और जीवनचर्या ने परिष्कृत किया है, तो बहुत सारी बोलियों को अन्य किन्ही कारकों ने और ऐसे कारकों में एक राजनीति भी है। तो जो भाषा या बोली अपनी परिस्थितियों के अनंतर भी राजनीति के द्वारा पोषित और पल्लवित की गई, उसका परिमार्जन उसी भांति हुआ और उसमें वह तदनुसार उसी तरह की गर्जना तर्जना उपस्थित हुई।
             
                 मेरे जानते इस संसार में भारतीय उपमहाद्वीप अथवा भारत के अंतर प्रदेशों में जो बोलियां जो भाषाएं विकसित हुई और उनमें तत्कालीन भाषाओं - बोलियों के अलावा तब की आवश्यकतानुसार कालांतर में संस्कृत नाम की तत्सम भाषा का आविष्कार एवं परिष्कार हुआ। वह अपने आप में एक महानतम घटना थी,क्योंकि उक्त भाषा को ध्वनि के आधार पर आवेशित किया गया एवं इसकी ध्वनात्मकता एवं वैज्ञानिकता भी देखते ही बनती है।
                 शब्दों के मूल धातुओं श्रुतियों एवं नानाविध प्रकारों की सुसंगतियों द्वारा स्थापित व परिष्कृत इस भाषा में वर्तमान भारत नाम के (बेशक तब वह भारत नहीं था।) भू - भाग के अंतर्देशीय समान विराट उपमहाद्वीप में जो प्रतिमान स्थापित किए, जो भावना स्थापित की और जीवनोपयोगी जिन ग्रंथों को इन भाषाओं में पिरोया गया, उससे इसका स्वरूप इतना विराट हो गया कि इसके आगे कोई भी भाषा अपने आप में बेहद अवैज्ञानिक जान पड़ती है । यह मैं इसलिए नहीं कह रहा कि मैं इसी भाषा के मनुष्यों का वंशज हूं या इसमें मेरा कोई परंपरावादी मनुवादी प्रपंच या गर्व बोध है। ऐसा भी नहीं है। किंतु तरह-तरह की भांति-भांति की भाषाओं और बोलियों को देखते समझते हुए और उनका भावनात्मक अनुवाद करते हुए जो एक विशेषता इस भाषा में एवम जो ध्वनात्मक लयबद्धत्ता इस भाषा में देखने को मिलती है, वह विरले ही किसी भी अन्य भाषा या बोली में देखने को मिलती है।
                  पुन: कालांतर में आवश्यकतानुसार इसका एक देशज रूप एक सरल भाषा की ओर मुड़ा, जिसे हिंदी के रूप में जाना गया, जो समय, स्थान व परिस्थितियों के अनुसार पल्लवित व विकसित होती चली गई। इस हिंदी में अपने समय और स्थान अनुसार समस्त नानाविध शब्दों का समायोजन होता चला गया और हिंदी एक विराट बहुभाषी लोगों की अधुनातन भाषा बन गई।
                   बेशक भारत नाम के देश में विभिन्न तरह की विविधताओं और तरह-तरह की कूपमंडूकताओं, राजनीतिक अवसरवादिताओं और घटनाओं के कारण भी इस भाषा के प्रचार एवं प्रसार में भांति-भांति की बाधाएं उपस्थित हुई, किंतु इसके अनंतर भी हिंदी अपनी लोकप्रियता को बढ़ाते हुए लोगों के हृदय में एक ऐसा कायम स्थान कायम कर बैठी, जिसको की कोई डिगा ही नहीं सकता था और ना कभी डिगा सकेगा । तो हिंदी की विराटता या हिंदी बोलने वालों की संख्या यद्यपि बढ़ती चली जा रही है, किंतु कुछ एक राजनीतिक कुठाराघात के कारण इसके प्रति वैमनस्य का भाव रखने वालों एवं उसका उस दुर्भाव का प्रसार करने वाले लोगों की भी कोई कमी नहीं है।
                    यद्यपि इससे हिंदी के चरित्र और इसकी सर्वव्यापकता में कोई ऋणआत्मकता आने की लेश मात्र भी संभावना नहीं दिखती। बल्कि इसके विरोध से यह और भी ज्यादा परिपूर्ण होती हुई दिखाई देती है। हिंदी भाषा और बोली अपने आप में इतनी ज्यादा विविधतापूर्ण सामंजस्यता और समरसता में एकता से भरी हुई है कि इसकी कतई भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। यहां तक कि जो करते हैं,उनमें से बहुतेरे तो स्वयं हिंदी में ही सोचते या विचारतें हैं।
                     तो हिंदी के वर्तमान स्वास्थ्य को देखते हुए इसके भविष्य के बारे में तनिक भी अवांछित संभावना नहीं दिखाई देती, यद्यपि हिंदी के प्रति हमारा सबसे बड़प्पन भरा सम्मान यही होगा कि हम ना केवल हिंदी को हिंदी बना रहने दें, बल्कि वर्तमान युग की सो कॉल्ड अंग्रेजी की आवश्यकताओं को देखते हुए भी अपने बच्चों में हिन्दी के प्रति किसी भी प्रकार का उपेक्षा भाव ना पैदा करें । क्योंकि हमारे बच्चे पैदा होते ही जिन शब्दों को अपने वातावरण अथवा परिवेश से सीखना शुरू करते हैं, वह केवल और केवल हिंदी ही तो है।
                     इसलिए हिंदी के प्रति अपने बच्चों में एक लगाव पैदा करें और अपने दैनंदिन के जीवन के अपने शब्दों में अपने बोली में अंग्रेजी के या अन्य भाषाओं के अनावश्यक रूप से अतिरेक से लगने वाले शब्दों को हटाकर वापस हिंदी को प्रतिस्थापित करें तथा अपने व्यवहार में भी स्वतः स्फूर्त हिंदी को लेकर आएं। क्योंकि जब तक हिंदी हिंदी बनी रहेगी, तब तक इसका चरित्र भी कायम रहेगा । तब तक इसके संस्कार कायम रहेंगे। तब तक हम इसके प्रति कोमल होते हुए, इसे अपने दिल में भरते हुए, इसे अपने हृदय में भरते हुए न केवल सबके प्रति सहृदय बने रहेंगे । बल्कि इसके सौंधेपन से अपनी मिट्टी को सुगंधित और अपने देश को भी इसकी बहुलता के गौरव से भरते रहेंगे।।
                 

   राजीव थेपड़ा

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