ललिता उराँव: जीवन की संघर्ष से सफलता तक की कहानी
झारखण्ड के लोहरदगा के किस्को गाँव की रहने वाली ललिता उराँव की सफलता की कहानी
सही लगन से कोई काम करे तो सफलता मिलती है वैसा कुछ आज हम अपने ब्लॉग के माध्यम से बता रहे है तो आइये आज जानते है वैसे एक महिला की कहानी
ललिता उराँव किस्को गाँव की रहने वाली हैं, ललिता महिला मंडल से 2015 में जुड़ी, ललिता उराव का जीवन काफी कष्टमय रहा है, ललिता उराँव के पति का निधन हो जाने के बाद उन्होंने अपना जीवन लकड़ी बेचने से शुरू किया। उनका कहना है कि अपने गाँव किस्को से बड़कीचांपी बाजार तक वह अपने सिर पर लकड़ी का गट्ठर पैदल लेकर जाया करती थी। उस समय वह प्रति गट्ठर 12 रूपये से लेकर 21 रूपये प्रति बोझा बेचा करती थी। उसी से उनके परिवार का खर्च चलता था।
कुछ समय तक उन्होंने रेजा-कुली का काम भी किया।कभी-कभी गाँव-गाँव जाकर वे धान ख़रीद कर उसे पुनः बेचा करती थी। उसी से अपने परिवार का गुजारा करती थी, किन्तु उसमें उनको बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा। उनका कहना है कि उनके घर में कभी-कभी एक टाइम का चावल भी नहीं होता था और साबुन, तेल का भी दिक्कत होता था I
अपने बच्चे को पढ़ाने के लिए वे हँड़िया-दारु बनाकर बेचने लगी।हँड़िया-दारु बेचकर ही अपने घर का गुजारा करने लगी और उसी से अपने बच्चे का पढाई भी कराती थी। उनका कहना है कि बच्चे की पढ़ाई के दौरान ललिता उराँव ने SHG से पहला ऋण 20 हजार रूपये लिया। दूसरी बार बच्चे की पढ़ाई के लिए 30 हजार रुपए का ऋण लिया और ससमय उसको लौटाया I
उनका कहना है कि हँड़िया-दारु बेचने से उनको समाज में ज्यादा सम्मान नहीं मिलता था और बच्चे की पढ़ाई पर असर भी होता था। उसी दौरान उन्होंने 40 हजार रूपये तृतीय ऋण के रूप में लिया। उससे उन्होंने अपने ही गाँव में छोटा-सा होटल खोला, जिससे वह आज अच्छी आमदनी भी प्राप्त कर रही हैं I होटल के माध्यम से उन्होंने अपने लिए घर बनाया और बच्चे की पढ़ाई भी पूरी करायी।वर्तमान में ललिता उराँव को अपने होटल से 3 लेबर और 1 मिस्त्री को उनकी दैनिक वेतन और होटल का प्रतिदिन का खर्च एवं भुगतान को काटकर , प्रति वर्ष उनको लगभग 1,20,000 रूपये से 1,25,000 रूपये की आमदनी प्राप्त हो जाती है।
कभी खाने को मोहताज़ ललिता उराँव आज अपने प्रखंड किस्को में महिला सशक्तिकरण की पहचान बनकर उभर रही हैं।
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