गुब्बारे वाला बच्चा: नैतिक जिम्मेदारी की कहानी

एक पिता अपने बच्चों के साथ आइसक्रीम खाने जाता है जब उसके बेटे की नजर एक गुब्बारे बेचने वाले बच्चे पर पड़ती है। पिता, जिसके पास खुद की गुब्बारे की दुकान है, उस बच्चे से गुब्बारे की मूल्य जानकर हैरान होता है। उसकी समझ में यह नहीं आता कि वह बच्चा इतने महंगे में गुब्बारे क्यों बेच रहा है। जब वह बच्चा अपनी कठिनाइयों और जीवन की संघर्षों के बारे में बताता है, पिता उसे सहायता प्रदान करने का निर्णय लेता है। यह कहानी सामाजिक जिम्मेदारी, सहानुभूति और मानवता की महत्व को प्रकट करती है।

Aug 13, 2023 - 20:40
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गुब्बारे वाला बच्चा: नैतिक जिम्मेदारी की कहानी
गुब्बारे वाला बच्चा :राजीव थेपड़ा

शाम का झुटपुटा चारों ओर फैल रहा था, सूरज मन्द्र-मन्द्र गति से मुस्कुराता हुआ पश्चिम की ओर अग्रसर था । मैं अपने बच्चों के साथ अपनी गाड़ी में शहर के सबसे भव्य मार्केटिंग कंपलेक्स के बाहर एक आइसक्रीम शॉप पर बच्चों को आइसक्रीम खिला रहा था कि एक गुब्बारे बेचने वाले बच्चे पर मेरे छोटे बेटे की नजर पड़ी और वह गुब्बारे लेने की जिद करने लगा ।
संयोगवश मेरी खुद की गुब्बारे के होलसेल शॉप थी और मैंने अपने बेटे को बार-बार समझाया कि नहीं बेटे हमारे पास बहुत सारे गुब्बारे हैं ,घर में भी और दुकान में भी, घर जाकर तुम्हें बहुत सारे गुब्बारे फुला कर देंगे ,लेकिन बेटा लगातार गुब्बारे वाले से ही गुब्बारे लेने की जिद करता रहा ।
गुब्बारे बेचने वाले बच्चे ने कहा - "बाबूजी एक गुब्बारा ले लो ना ! प्लीज !!"
मैंने उससे गुब्बारे का दाम पूछा तो उसने बताया 10 रुपये ।
मैंने हैरत से कहा-" 10 रुपये ?? अरे यार यह गुब्बारे तो 40 रुपये में पचास पीस के पैकेट मिलते हैं मेरे यहाँ तुम इसके ₹10 ले रहे हो ,80 पैसे के गुब्बारे के 10 रुपये ?"
तो उसने बताया कि वह जिस महाजन से माल लेता है ,वह उसे उधार देते हैं और 100 रुपये का एक पैकेट देते हैं ,गुब्बारे बेचकर वह उनका वह उधार चुकती कर देता है ,इस तरह से जीवन यापन चलता है ,तो मैंने कहा,यह तो घोर अंधेर है फिर भी ठीक है सौ रुपए के मिलते हैं तो भी तो यार तू 2 रुपये के 10 रुपये ले रहा है ,लो 5 रुपये ले लो, बस हो गया ! 
बेचारा गुब्बारे वाला बच्चा बेहद कातर निगाहों से निगाहों से मुझे देखने लगा ,वास्तव में उसके पास मेरी बातों के लिए कोई जवाब नहीं था, वह एक टक निर्विकल्प निगाहों से मुझे देखता रहा और घूमकर जाने को हुआ, लेकिन उसकी सूनी निगाहों ने मुझे विवश कर दिया कि मैं उसकी ओर से पीठ मोड़ कर जा नहीं पा रहा था और इधर मेरा बेटा लगातार गुब्बारे को बड़ी हसरत की निगाह से देख रहा था, जितनी हसरत मेरी बेटे की उन गुब्बारों के लिए उसकी निगाहों में थी , उससे भी ज्यादा कातर भरी और हसरत भरी निगाहें उस गुब्बारे वाले की मुझ पर थीं, कहीं ना कहीं उसकी आंखों में गुब्बारे खरीदे जाने की आशा भरी हुई थी !
उसे वापस बुला कर मैंने उसे 20 रुपये का एक नोट दिया और कहा गुब्बारे दे दो ,वह एक गुब्बारा देकर बाकी के 10 रुपये मुझे लौटाने को हुआ तब मैंने कहा नहीं दो गुब्बारे दो,तब मेरे बेटे ने पूछा ,
"पापा - दो गुब्बारे क्यूँ ? "
मैंने कहा -"बेटा ! घर पर तेरी कज़न भी तो है, उसके लिए नहीं लेने ? "
बेटे ने बहुत खुश होकर कहा -" अरे हाँ-हाँ !"
गुब्बारा वाला बच्चा भी दुगुना खुश हो गया और मैं उसे खुश होता हुआ देखकर खुद को बहुत प्रफुल्लित महसूस कर रहा था ! 
गुब्बारा वाला बच्चा लौटकर जाने को लगा तो मैंने उसे वापस बुलाया कि बेटा तुम कल से मेरे पास आना , यही गुब्बारे का पैकेट मैं तुम्हें 40 रुपये में दूंगा और तुम मुझे यह पैसे गुब्बारे बेच कर चुका देना ,और आज की आज ही जिससे तुम यह गुब्बारे खरीदते हो उसका उधार भी चुका देना और कल से इन पैसों को जमा करना और तुम्हारे दोस्त-यार भी ,जो गुब्बारे बेचने वाले हैं उन्हें भी मेरे पास ले आना !! अब तो गुब्बारे वाले की खुशी की कोई सीमा ही नहीं थी , ऐसा कहते हुए और अपनी दुकान का पता बताते हुए मैं न केवल एक एक समूची जमात से साहचर्य महसूस कर रहा था, बल्कि एक सामाजिक कर्तव्य के निर्वाह का बोध अपने भीतर महसूस कर रहा था ! 
एक बात और मेरी खुद की गुब्बारे के एक पैकेट की लागत 42 रुपये थी और मैंने उस गुब्बारे वाले बच्चे से झूठ बोला था कि मेरे यहां यह गुब्बारे 40 रुपये में मिलते हैं ! तो 42 रुपये की लागत के गुब्बारे 40 रुपये में गुब्बारे वालों को देने का वादा करके मुझे जिस आत्मिक संतोष का बोध हो रहा था ,उसका वर्णन मैं यहां नहीं कर सकता !

राजीव थेपड़ा

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